ग़ज़ल

|| ग़ज़ल – २३ ||

      ( नज्र-ए-ख़ुदा-ए-सुख़न )

तश्नालबी-ए-अब्र तो है चश्म-ए-तर नहीं,
अबके बहार आने की कोई ख़बर नहीं.

साक़ी को देखते हैं बड़ी हसरतों से रिन्द,
पाबन्दि-ए-हिजाब उधर है इधर नहीं.

अफ़्सुर्दगी अयां है जो चेहरे पे क्या अजब,
रंग-ए-सहर निशानी-ए-शम्म-ए-सहर नहीं.

हद्दे नज़र ज़मीं से आसमां तलक तो ठीक,
आए न वो नज़र तो समझिये नज़र नहीं.

कासी भी चाहिये उन्हें दिल्ली भी चाहिये,
दोनों का वज़्न एक है प इक बहर नहीं !

“है ‘आशिकी के बीच सितम देखना ही लुत्फ़
मर जाना आँखें मूँद के यह कुछ हुनर नहीं !”
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तश्नालबी-ए-अब्र = बादलों की प्यास
चश्म-ए-तर = आंसू से भरी आंखें
पाबन्दि-ए-हिजाब = पर्दा रखने की बाध्यता
अफ़्सुर्दगी = दुख / उदासी
अयां = प्रदर्शित
रंग-ए-सहर = सुबह का रंग
शम्म-ए-सहर = सुबह की (बुझने वाली) शमा

ग़ज़ल

बारहा कागज़ों पर उतारे गए,
लफ्ज़ मानी से मिलते ही मारे गए.

चार कपड़ों में मौसम समेटे गए,
दो निगाहों से मँज़र सँवारे गए.

बादशाहत का दावा तो करते मग़र,
तख़्त हमसे जुए में न हारे गए.

ह़र्फ़े-आख़िर वही हैं तवारीख़ के,
इस भरम में कई लोग मारे गए.

मुख़्तसर सा फसाना फकीरों का है,
रात काटी गई दिन गुज़ारे गए.
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ज़िन्दगी भर पुकारी गई आयतें,
आख़िरी वक्त में हम पुकारे गए !
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मानी = अर्थ
ह़र्फे-आख़िर = अँतिम सत्य
तवारीख़ = इतिहास

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